आधी आबादी का दायरा

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दी न्यूज़ एशिया समाचार सेवा।

आधी आबादी का दायरा

फैसले के प्रकाश में भविष्य में महिला अधिकारों काे पुख्ता

करने में मदद मिलेगी

एक हालिया फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के अपने शरीर पर अधिकार की अवधारणा को एक बार फिर स्थापित किया है। निश्चय ही इस फैसले के प्रकाश में भविष्य में महिला अधिकारों काे पुख्ता करने में मदद मिलेगी। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने गर्भ का चिकित्सीय समापन यानी एमटीपी अधिनियम के तहत विवाहिताओं के साथ ही अविवाहित महिलाओं को गर्भावस्था के 24 हफ्ते तक सुरक्षित व कानूनी रूप से गर्भपात का अधिकार दिया है। कोर्ट की दलील थी कि महिलाओं के साथ विवाहित व अविवाहित होने के आधार पर किसी तरह का भेदभाव संवैधानिक रूप से तार्किक नहीं कहा जा सकता। वहीं इसके अलावा कोर्ट ने यह भी कहा कि बलात्कार के अपराध की व्याख्या में वैवाहिक बलात्कार को भी शामिल किया जाये जिससे एमटीपी अधिनियम का मकसद पूरा हो सके। दरअसल, बदलते वक्त के साथ भारतीय समाज में रिश्तों के स्वरूप में आ रहे बदलावों व महिला अधिकारों के विस्तार के नजरिये से कोर्ट ने अधिनियम के मकसद को परिभाषित किया है।
                       निस्संदेह, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला तथा जस्टिस एएस बोपन्ना की पीठ के ताजा फैसले ने महिला सशक्तीकरण की अवधारणा को ही संबल दिया है। साथ ही स्पष्ट किया कि महिला के शरीर पर पहला हक स्त्री का है, जिसको विवाहित व अविवाहित होने के चलते किसी अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। उल्लेखनीय है कि एमटीपी अधिनियम के तहत गर्भपात के जिन नियमों का उल्लेख है शीर्ष अदालत ने उन्हें अधिक स्पष्टता दी है। जिसका संदेश यह भी कि नये दौर के भारत में स्त्री को अपनी देह से जुड़े फैसलों को लेने का पूरा हक है। यह बात अलग है कि देश के एक बड़े तबके में अभी यह प्रगतिशील सोच विकसित नहीं हो पायी है। निस्संदेह, पुरुष वर्चस्व वाले समाज में स्थितियां आज भी काफी जटिल हैं जिसके मूल में अशिक्षा व गरीबी की बड़ी भूमिका रही है। यह वजह है कि शीर्ष अदालत के तमाम प्रगतिशील फैसले व्यवहार में उतने प्रभावकारी नहीं हो पाते। यदि देश में पुख्ता कानून सामाजिक बदलाव के वाहक नहीं बनते तो उन्हें क्रियान्वित करने वाली एजेंसियों की कारगुजारियों का मूल्यांकन करना समय की जरूरत है। साथ ही लोगों की सोच बदलने के लिये रचनात्मक पहल करने की जरूरत भी। जिससे महिलाओं से जुड़े कानूनों का वास्तविक लाभ उन्हें मिल सके। तभी महिलाओं की सुरक्षा को हकीकत बनाया जा सकेगा। निस्संदेह, जब अमेरिका समेत तमाम विकसित देशों में भी महिलाओं को गर्भपात से जुड़े पर्याप्त अधिकार नहीं मिल पाये हैं, भारतीय न्यायिक व्यवस्था की प्रगतिशीलता हमें शेष दुनिया से आगे रखती है। दुनिया में सौ देश भी ऐसे नहीं हैं जहां गर्भपात को लेकर स्पष्ट कानूनी दृष्टि हो। ऐसे में शीर्ष अदालत की हालिया व्याख्या महिलाओं के अधिकारों को मजबूती देती है। जो एक तरफ स्त्री की व्यक्तिगत स्वायत्तता को स्थापित करती है वहीं उसको प्रजनन विकल्पों को चुनने की आजादी देती है। अदालत ने इस हक से लिव-इन रिलेशन में रहने वाली महिलाओं को भी अधिकार संपन्न बनाया है। अब वे गर्भावस्था के 24 सप्ताह तक सुरक्षित व कानूनी गर्भपात की हकदार हो सकेंगी।